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रमज़ान में क़ियामुल्लैल की प्रतिष्ठा

प्रश्न: 3452

रमज़ान की रातों में क़ियाम करने (नमाज़ पढ़ने) की फज़ीलत (प्रतिष्ठा) क्या हैॽ

उत्तर का पाठ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

रमज़ान की रातों में क़ियाम करने की फज़ीलत :

1- अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा : ''अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रमज़ान में क़ियामुल्लैल करने की रूचि दिलाते थे, किन्तु उन्हें दृढ़ रूप से आदेश नहीं देते थे। फिर फरमाते : ''जिसने ईमान (विश्वास) के साथ और पुण्य की आशा रखते हुए रमज़ान का क़ियाम किया, तो उसके पिछले पाप क्षमा कर दिए जाएंगे।'' चुनाँचे पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का निधन हो गया और मामला इसी पर बरक़रार था (अर्थात तरावीह की नमाज़ को जमाअत के साथ न पढ़ने पर) फिर अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु की खिलाफ़त (उत्तराधिकार) में तथा उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के उत्तराधिकार के आरंभ में भी मामला इसी पर बरक़रार रहा।

अम्र बिन मुर्रा अल-जुहनी से वर्णित है कि उन्हों ने कहाः अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास क़ुज़ाआ (नामी गोत्र) का एक आदमी आया और कहा : हे अल्लाह के पैगंबर! आपका क्या विचार है अगर मैं गवाही दूँ कि अल्लाह के अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं और आप मुहम्मद अल्लाह के संदेष्टा हैं, औप पाँच समय की दैनिक नमाज़ें पढ़ूँ, और (रमज़ान के) महीने का रोज़ा रखूँ, रमज़ान का क़ियाम करूँ और ज़कात का भुगतान करूँॽ तो इस पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः ''जो कोई भी इसपर मर जाए तो वह सिद्दीक़ीन और शहीदों में से होगा।"

लैलतुल-क़द्र और उसका निर्धारण :

2- रमज़ान की रातों में सबसे बेहतर रात लैलतुल-क़द्र (सम्मान और प्रतिष्ठा की रात) है, क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : ''जिसने ईमान (विश्वास) के साथ और पुण्य की आशा रखते हुए लैलतुल-क़द्र का क़ियाम किया (फिर वह रात उसे मिल गई) तो उसके पिछले पापों को क्षमा कर दिया जाएगा।''

3- अधिक राजेह कथन के अनुसार यह रमज़ान की सत्ताईसवीं रात है, और अधिकतर हदीसें इसी को दर्शाती हैं। उन्हीं में से ज़िर्र बिन हुबैश की हदीस है, वह कहते हैं किः मैंने उबैय बिन कअब को फरमाते हुए सुना – जबकि उनसे कहा गया था कि अब्दुल्लाह बिन मसऊद कहते हैं किः  जिसने पूरे साल क़ियामुल्लैल किया वह लैलतुल-क़द्र को पा जाएगा! – तो उबैय रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमायाः अल्लहा उन पर दया करे, उन्हों ने यह चाहा कि लोग इसी पर भरोसा कर न बैठ जाएं, उस अस्तित्व की सौगंध जिसके अलावा कोई सत्य पूज्य नहीं! निःसंदेह वह (रात) रमज़ान में है – वह क़सम खाते हुए इन शा अल्लाह नहीं कहते हैं – और अल्लाह की क़सम मुझे पता है कि वह कौनसी रात हैॽ यह वही रात है जिसके क़ियाम का अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमें आदेश दिया है, यह सत्ताईसवीं सुबह की रात है और उसकी निशानी यह है कि उसके दिन की सुबह सूरज सफेद उदय होता है उसमें किरणें नहीं होती हैं।” एक रिवायत में इस हदीस को उन्हों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से रिवायत किया है। इसे मुस्लिम वग़ैरह ने रिवायत किया है।

क़ियामुल्लैल में जमाअत की वैधता :

4- रमज़ान के क़ियामुल्लैल में जमाअत धर्मसंगत है, बल्कि यह अकेले पढ़ने से बेहतर है, क्योंकि स्वयं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसके लिए जमाअत कराई है, और अपने कथन से इसकी फ़ज़ीलत व प्रतिष्ठा बयान की है, जैसाकि अबू ज़र्र रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में है कि उन्हों ने कहाः ''हमने पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ रमज़ान का रोज़ा रखा, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमें महीने के किसी भी दिन क़ियाम नहीं करवाया यहाँ तक कि सात रातें बाक़ी रह गईं, तो आप ने हमें क़ियामुल्लैल करवाया यहाँ तक कि रात का एक तिहाई हिस्सा समाप्त हो गया। जब छः रातें रह गईं तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमें क़ियाम नहीं करवाया, फिर जब पांच रातें रह गईं तो हमें कियामुल्लैल करवाया यहाँ तक कि आधी रात समाप्त हो गई। तो मैं ने कहाः ऐ अल्लाह के पैगंबर, यदि आप हमें यह पूरी रात क़ियाम करवाते। तो आप ने फरमायाः आदमी जब इमाम के साथ नमाज़ पढ़ता है यहाँ तक कि वह फारिग हो जाता है तो उसके लिए रातभर क़ियाम करने का अज्र व सवाब लिखा जाता है।'' फिर जब चार रातें रह गईं तो आप ने हमें क़ियाम नहीं करवाया, फिर जब तीन रातें रह गईं तो आप ने अपने परिवार, अपनी औरतों और लोगों को एकत्रित किया और हमें क़ियाम करवाया यहाँ तक कि हमें यह भय हुआ कि हमसे फलाह छूट जाएगा। वह कहते हैं कि मैं ने कहाः फलाह क्या हैॽ उन्हों ने कहाः सेहरी। फिर आप ने हमें महीने की शेष रातो में क़ियाम नहीं करवाया।'' यह हदीस सही है, इसे अस्हाबुस्सुनन ने रिवायत किया है।

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जमाअत के साथ क़ियामुल्लैल को जारी न रखने का कारण :

5- नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने महीने के शेष दिनों में उन्हें जमाअत के साथ क़ियामुल्लैल इस डर से नहीं करवाया कि रमज़ान में रात की नमाज़ (तरावीह) उन पर फर्ज़ न कर दी जाए, तो वे उसकी अदायगी में असक्षम रहें। जैसाकि सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम इत्यादि में आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की हदीस में आया है। लेकिन जब अल्लाह ने शरीयत को परिपूर्ण कर दिया तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मृत्यु द्वारा यह डर (शंका) समाप्त हो गया। और इसी के साथ (अर्थात इल्लत-कारण की समाप्ति के साथ) मालूल भी समाप्त हो गया और वह रमज़ान के क़ियाम में जमाअत को छोड़ना है। और पूर्व हुक्म बाक़ी रह गया जो कि जमाअत का वैध होना है। इसीलिए उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने इसका नवीकरण किया जैसाकि सहीह बुखारी आदि में है।

महिलाओं के लिए जमाअत की वैधता :

6- महिलाओं के लिए क़ियामुल्लैल की जमाअत में उपस्थित होना वैध है जैसाकि अबू ज़र्र रज़ियल्लाहु अन्हु की पिछली हदीस में है। बल्कि यह भी जायज़ है कि पुरूषों के इमाम के अलावा, उनके लिए एक विशिष्ट इमाम निर्धारित कर दिया जाए। क्योंकि यह प्रमाणित है कि उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने जब लोगों को क़ियमुल्लैल पर एकत्रित किया तो मर्दों पर उबैय बिन कअब और महिलाओं पर सुलैमान बिन अबू हसमा को नियत किया। चुनांचे अरफजा अस्सक़फ़ी से वर्णित है कि उन्हों ने कहाः ''अली बिन अबू तालिब रज़ियल्लाहु अन्हु लोगों को रमज़ान के महीने में क़ियामुल्लैल करने का आदेश देते थे, और एक इमाम पुरूषों के लिए और एक इमाम औरतों के लिए नियत कर देते थे। वह कहते हैं कि तो मैं औरतों का इमाम होता था।''

मैं कहता हूँ किः मेरे निकट इसका स्थान इस स्थिति में है जब मस्जिद विस्तृत हो, ताकि उनमें से एक दूसरे के लिए परेशानी और उलझन का कारण न बने।

क़ियामुल्लैल की रकअतों की संख्या :

7- उसकी रकअतों की संख्या ग्यारह है। और हम इस बात को पसंद करते हैं कि वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करते हुए इससे अधिक न पढ़े। क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इससे अधिक क़ियामुल्लैल नहीं किया यहाँ तक कि इस दुनिया को छोड़ कर अल्लाह को प्यारे हो गए। आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रमज़ान में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की नमाज़ के बारे में पूछा गया, तो उन्हों ने फरमायाः ''नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रमज़ान के महीने या किसी अन्य महीने में ग्यारह रकअत से अधिक नहीं पढ़ते थे। आप चार रकअतें पढ़ते तो उनकी लबांई और ख़ूबसूरती के बारे में मत पूछिए। फिर आप चार रकअतें पढ़ते थे तो उनकी लंबाई और ख़ूबसूरती के बारे में मत पूछिए। फिर आप तीन रकअतें पढ़ते थे।'' इसे बुख़ारी व मुस्लिम वग़ैरह ने उल्लेख किया है।

8- उसके लिए इससे कम संख्या में भी पढ़ना जायज़ है, यहाँ तक कि यदि वह केवल वित्र की रकअत पर निर्भर करो। इसका प्रमाण नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन और कर्म है।

आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कर्म से इसका प्रमाण यह है कि आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से प्रश्न किया गया कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कितनी रकअत वित्र पढ़ते थेॽ उन्हों ने उत्तर दियाः आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम चार और तीन, छः और तीन, दस और तीन रकअत के साथ वित्र करते थे। तथा आप सात से कम और तेरह रअकत से अधिक वित्र नहीं पढ़ते थे। इसे अबू दाऊद और अहमद वग़ैरह ने रिवायत किया है।

तथा रही बात आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कथन की तो वह यह हैः ''वित्र सत्य है, अतः जो चाहे पाँच रकअत वित्र पढ़े, जो चाहे तीन रकअ वित्र पढ़े और जो चाहे एक रकअत वित्र पढ़े।''

क़ियामुल्लैल में क़ुरआन का पाठ :

9- रमज़ान या इसके अलावा अन्य दिनों में क़ियामुल्लैल के अंदर क़ुरआन के पढ़ने की नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कोई सीमा निर्धारित नहीं की है कि उसमें वृद्धि या कमी के द्वारा उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता, बल्कि उसमें आपकी क़िराअत लंबी और छोटी होने के एतिबार से भिन्न हुआ करती थी। चुनांचे कभी आफ प्रत्येक रकअथ में सूरत (या अय्योहल- मुज़्ज़म्मिल) की मात्रा में पढ़ते थे जिसके अंदर बीस आयतें हैं, तो कभी पचास आयतों की मात्रा में पढ़ते थे। और आप फरमाते थेः “जिस व्यक्ति ने एक रात में सौ आयतें पढ़ी वह ग़ाफ़िलों में से नहीं लिखा जाएगा।'' और एक अन्य हदीस में यह है किः ''.. दो सौ आयतें पढ़ीं तो वह मुख्लिसों और इबादत गुज़ारों में से लिखा जाएगा।''

तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक रात में जबकि आप बीमार थे सात लंबी सूरतें पढ़ीं, जो कि सूरतुल बक़रा, आल-इम्रान, अन्निसा, अल-मायदा, अल-अनआम, अल-आराफ़ और अत्तौबा हैं।

तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पीछे हुज़ैफ़ा बिन अल-यमान की नमाज़ के क़िस्से में वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक ही रकअत में सूरतुल बक़रा फिर सूरतुन्निसा, फिर सूरत आल-इम्रान पढ़ी। तथा आप उन्हें ठहर-ठहर कर पढ़ते थे।''

तथा सबसे सही इस्नाद के साथ साबित है कि जब उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने उबैय बिन कअब को रमज़ान के महीने में लोगों को ग्यारह रकअत नमाज़ पढ़ाने का हुक्म दिया तो उबैय रज़ियल्लाहु अन्हु सौ आयतों वाली सूरतें पढ़ते थे, यहाँ तक कि जो लोग उनके पीछे होते थे वे लंबे क़ियाम के कारण लाठियों पर टेक लगाते थे और फज्र के शुरू में पलटते थे।

तथा उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से यह भी प्रमाणित है कि उन्हों ने रमज़ान में क़ारियों को बुलाया और उनमें से सबसे तेज़ क़िराअत करने वाले को तीस आयतें, और मध्य रफ्तार से क़िराअत करने वाले के पचीस आयतें और धीमी रफ्तार से क़िराअत करने वाले को बीस आयतें पढ़ने का आदेश दिया।

इस आधार पर, यदि क़ियाम करने वाला स्वयं अपने लिए अर्थात अकेले नमाज़ पढ़ रहा है, तो वह क़िराअत को जितनी चाहे लंबी करे, इसी तरह जब उसके साथ कोई ऐसा आदमी हो जो उसके मुवाफिक़ हो। और क़िराअत जितनी लंबी करे बेहतर है, किन्तु क़िराअत लंबी करने में अतिश्योक्ति न करे यहाँ तक कि पूरी रात जागे, सिवाय इसके कि कभी-कभार ऐसा हो जाए। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करते हुए, जिनका फरमान हैः ''और सर्वश्रेष्ठ तरीक़ा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का तरीक़ा है।'' लेकिन जब वह इमाम के तौर पर नमाज़ पढ़ाए तो उसे चाहिए कि क़िराअत केवल इतनी लंबी करे कि उसके पीछे नमाज़ पढ़ने वालों पर कष्ट का कारण न बने। क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फऱमान हैः ''जब तुम में से कोई व्यक्ति लोगों को क़ियाम कराए तो नमाज़ को हल्की पढ़ाए। क्योंकि उनमें छोटे और बूढ़े भी होते हैं, और उनमें कमज़ोर, बीमार और ज़रूरतमंद भी होते हैं। और जब वह अकेले नमाज़ पढ़े, तो अपनी नमाज़ को जितनी चाहे लंबी करे।''

क़ियाम का समय :

10- रात की नमाज़ का समय इशा की नमाज़ के बाद से फ़ज्र तक है। इसका प्रमाण नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः ''अल्लाह ने तुम्हारे लिए एक नमाज़ बढ़ा दिया (तुम्हें एक नमाज़ अतिरिक्त प्रदान किया) है और वह वित्र है, तो तुम उसे इशा की नमाज़ और फज़्र की नमाज़ के बीच पढ़ो।''

11- रात के अंतिम भाग में नमाज़ पढ़ना सबसे अफ़ज़ल है जिसके लिए ऐसा करना आसान है। क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः ''जिस आदमी को यह भय हो कि वह रात के अंतिम भाग में नहीं उठ सकेगा तो वह उसके शुरू भाग में वित्र पढ़ ले। और जिस व्यक्ति को उसके आख़िर में उठने की आशा हो वह रात के अंतिम भाग में वित्र पढ़े, क्योंकि रात के अंत में नमाज़ में फरिश्ते उपस्थित होते हैं। और यह अफज़ल है।''

12- यदि मामला रात के शुरू में जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ने और रात के अंतिम भाग में अकेले नमाज़ पढ़ने के बीच घूमता हो, तो जमाअत के साथ पढ़ना अफ़ज़ल है, क्योंकि उसके लिए पूरी रात क़ियाम करना शुमार किया जाता है।

और इसी पर उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के समयकाल में सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम का अमल था। अब्दुर्रहमान बिन उबैद अल-क़ारी कहते हैं: ''मैं रमज़ान में एक रात उमर बिन खत्ताब के साथ मस्जिद की ओर निकला, तो देखा कि लोग विभिन्न समूहों में थे। कोई अकेले नमाज़ नमाज़ पढ़ रहा है, कोई नमाज़ पढ़ रहा है तो उसके साथ एक समूह भी नमाज़ पढ़ रहा है। इस पर उन्होंने कहाः अल्लाह की क़सम मेरा विचार यह है कि यदि मैं उन्हें एक क़ारी पर एकत्रित कर दूँ तो यह बहुत बेहतर होगा। फिर उन्हों ने पक्का इरादा कर लिया और उन्हें उबैय बिन कअब पर एकत्रित कर दिया। वह कहते हैं फिर मैं उनके साथ एक दूसरी रात में निकला और लोग अपने क़ारी के साथ नमाज़ पढ़ रहे थे, तो उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहाः यह कितनी अनोखी चीज़ है, और जिससे ये लोग सो जाते हैं वह उससे बेहतर है जिसमें ये क़ियाम कर रहे हैं। – उनका मतलब रात के अंतिम भाग से था – उस समय लोग रात के प्रथम भाग में क़ियाम करते थे।”

ज़ैद बिन वहब कहते हैं : “अब्दुल्लाह हमें रमज़ान में नमाज़ पढ़ाते थे तो वह रात के समय पलटते थे।”

13- जब आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तीन रकअत वित्र पढ़ने से मना फरमाया और उसका कारण अपने इस कथन के द्वारा बयान किया कि: “मग़्रिब की नमाज़ की समानता न अपनाओ।” तो ऐसी अवस्था में तीन रकअत वित्र पढ़ने वाले के लिए ज़रूरी है कि वह इस समानता से बाहर निकले, और इसके दो तरीक़े हैं :

प्रथम: दो रकअत और एक रकअत के बीच सलाम फेरना, और यह सबसे मज़बूत और सर्वश्रेष्ठ है।

दूसरा : दो रकअत और एक रकअत के बीच न बैठे। और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

वित्र की नमाज़ में क़िराअत :

14- तीन रकअत वित्र की पहली रकअत में “सब्बिहिस्मा रब्बिकल आला” (सूरतुल आला) और दूसरी रकअत में “क़ुल या अय्योहल काफ़िरून” और तीसरी रकअत में “क़ुल हुवल्लाहु अहद” (सूरतुल इख़्लास) पढ़ना सुन्नत है। और कभी-कभी उसमें “क़ुल अऊज़ो बि-रब्बिल-फलक़” (सूरतुल फ़लक़) और “क़ुल अऊज़ो बि-रब्बिन्नास” (सूरतुन्नास) की भी वृद्धि कर लिया करें।

तथा नब सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ने एक बार वित्र की रकअत में सूरतुन्निसा की सौ आयतें पढ़ीं।

क़ुनूत की दुआ :

15- क़ुनूत में वह दुआ पढ़े जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने नवासे हसन बिन अली रज़ियल्लाहु अन्हु को सिखाई थी। और वह यह हैः

( اللهم اهدني فيمن هديت وعافني فيمن عافيت وتولني فيمن توليت ، وبارك لي فيما أعطيت ، وقني شر ما قضيت ، فإنك تقضي ولا يقضى عليك ، وإنه لا يذل من واليت ، ولا يعز من عاديت ، تباركت ربنا وتعاليت ، لا منجا منك إلا إليك )

"अल्लाहुम्मह-दिनी फी मन हदैत, व आफिनी फी मन आफैत, व त-वल्लनी फी मन तवल्लैत, व बारिक ली फी मा आ'तैत, व क़िनी शर्रा मा क़ज़ैत, फ-इन्नका तक़्ज़ी वला युक़्ज़ा अलैक, व-इन्नहू ला यज़िल्लो मन वालैत, वला य-इज़्ज़ो मन आदैत, तबारक्ता रब्बना व-तआलैत, वला मन्जा मिन्का इल्ला इलैक" (ऐ अल्लाह, उन लोगों के साथ मेरा (भी) मार्गदर्शन कर जिनका तू ने मार्गदर्शन किया है, उन लोगों के साथ मुझे क्षेम-कुशल प्रदान कर जिन्हें तू ने क्षेम-कुशल प्रदान किया है, उन लोगों के साथ मेरा भी सहयोगी बन जा जिनका तू सहयोगी है, और जो कुछ तू ने प्रदान किया है उसमें मुझे बर्कत दे, मुझे उस बुराई से सुरक्षित रख जिसका तू ने फैसला किया है, क्योंकि वास्तव में तू ही फैसला करता और तेरे ख़िलाफ़ कोई फैसला नहीं कर सकता। निश्चित रूप से, वह अपमानित नही हो सकता जिसे तू ने दोस्त बनाया है तथा वह कभी भी सम्मानित नहीं हो सकता जिसे तू ने दुश्मन के रूप में लिया है। ऐ हमारे पालनहार, तू धन्य (बर्कत वाला) और महान है। तेर अलावा तुझ से कोई शरण नहीं है।)

और कभी-कभी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दुरूद भेजे, जिसका प्रमाण आगे आ रहा है। (तथा इसमें वैध और शुद्ध व अच्छी दुआओं की दृद्धि करने में कोई बात नहीं है।

16- तथा क़ुनूत को रुकूअ के बाद करने में कोई हरज की बात नहीं है, तथा उसमें काफ़िरों पर लानत (धिक्कार) की वृद्धि करने, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर सलात व सलाम (दुरूद व सलाम) पढ़ने, और रमज़ान के दूसरे अर्ध में मुसलमानों के लिए दुआ करने में कोई बात नहीं है। क्योंकि यह उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के युग में इमामों से साबित है। चुनाँचे अब्दुर्रहमान बिन उबैद अल-क़ारी की पिछली हदीस के अंत में आया है किः “और वे लोग महीने के अर्ध में काफ़िरों पर (इन शब्दों में) धिक्कार करते थेः

اللهم قاتل الكفرة الذين يصدون عن سبيلك ، ويكذبون رسلك ، ولا يؤمنون بوعدك ، وخالف بين كلمتهم ، وألق في قلوبهم الرعب، وألق عليهم رجزك وعذابك ، إله الحق

“अल्लाहुम्मा क़ातेलिल कफरह अल्लज़ीना यसुद्दूना अन सबीलिक, व युकज़्ज़िबूना रुसुलक, वला यूमिनूना बि-वादिक, व ख़ालिफ़ बैना कलिमतिहिम, व-अल्क़ि फ़ी क़ुलूबिहिम अर्रूअबा, व-अल्क़ि अलैहिम रिज्ज़का व अज़ाबका, इलाहल हक़्क़।” (ऐ अल्लाह, तू उन काफिरों का विनाश कर दे जो तेरे मार्ग से लोगों को रोकते हैं, तेरे पैगंबर को झुठलाते हैं, तेरे वादे पर विश्वास नहीं करते, उनके बीच मतभेद (फूट) पैदा कर दे, उनके दिलों में भय डाल दे, उन पर अपनी सज़ा और प्रकोप भेज, ऐ सत्य पूज्य।)

फिर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दुरूद पढ़े और जितना हो सके मुसलमानों के लिए भलाई (कल्याण) की दुआ करे। फिर मुसलमानों के लिए इस्तिग़फ़ार (क्षमा की याचना) करे।

वह कहते हैं : जब काफिरों पर लानत (धिक्कार) भेजने, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर दुरूद पढ़ने और विश्वासी पुरूषों एवं महिलाओं के लिए इस्तिग़फ़ार करने से फारिग होते तो यह दुआ पढ़ते थेः

  اللهم إياك نعبد ، ولك نصلي ونسجد ، وإليك نسعى ونحفد ، ونرجو رحمتك ربنا ، ونخاف عذابك الجد ، إن عذابك لمن عاديت ملحق

“अल्लाहुम्मा इय्याका नाबुदो, व लका नुसल्ली व नस्जुदो, व इलैका नस्आ व नहफिदो, व नर्जू रहमतका रब्बना, व नख़ाफ़ो अज़ाबकल-जद्द, इन्ना अज़ाबका लिमन आदैता मुलहिक़।” (ऐ अल्लाह, हम तेरी ही उपासना करते हैं, तेरे ही लिए नमाज़ पढ़ते और सज्दा करते हैं, तेरी ही तरफ हम प्रयास और जल्दी करते हैं। हे हमारे पालनहार, हम तेरी ही दया की आशा रखते हैं और हम तेरे शक्तिशाली दंड से डरते हैं, निःसंदेह तेरी सजा निश्चित रूप से उस व्यक्ति को पहुँचनेवाली है जिसे तू अपने दुश्मन के रूप में लिया है।)

फिर अल्लाहु अक्बर कहे और सज्दे में चला जाए।

वित्र के अंत में क्या कहेंगे :

17- तथा सुन्नत है कि वित्र के अंत मे (सलाम फेरने से पहले या उसके बाद) यह दुआ पढ़ेः

" اللهم إني أعوذ برضاك من سخطك ، وبمعافاتك من عقوبتك ، وأعوذ بك منك ، لا أحصي ثناء عليك ، أنت كما اثنيت على نفسك "

अल्लाहुम्मा इन्नी अऊज़ो बि-रिज़ाका मिन सखतिका, व बि-मुआफातिका मिन उक़ूबतिका, व अऊज़ो बिका मिन्का, ला उह्सी सनाअन अलैका, अन्ता कमा अस्नैता अला नफ़्सिका” (ऐ अल्लाह, मैं तेरे क्रोध से तेरी प्रसन्नता की और तेरी सज़ा से तेरी सुरक्षा की शरण लेता हूं। तथा मैं तुझसे तेरी शरण लेता हूं। मैं तेरी संपूर्ण प्रशंसा करने की क्षमता नहीं रखता, तू उसी तरह है जैसे तू ने स्वयं की प्रशंसा की है।)

18- जब वित्र से सलाम फेरे तो कहेः सुब्हानल मलिकिल क़ुद्दूस, सुब्हानल मलिकिल क़ुद्दूस, सुब्हानल मलिकिल क़ुद्दूस (तीन बार) और तीसरी बार अपनी आवाज़ को खींचे और ऊंची करे।

वित्र के बाद दो रकअतें :

19- उसके लिए जायज़ है कि (वित्र के बाद अगर चाहे तो) दो रकअत नमाज़ पढ़े, क्योंकि ये दोनों रकअतें पढ़ना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कृत्य से प्रमाणित हैं ..बल्कि आपका कथन हैः “यह यात्रा कष्टदायक और कठिनाई का कारण है। अतः जब तुम में से कोई व्यक्ति वित्र की नमाज़ पढ़े तो दो रकअतें पढ़ लिया करे। फिर यदि वह जाग गया तो ठीक, अन्यथा ये दोनों रकअतें उसके लिए पर्याप्त होंगी।”

20- सुन्नत यह है कि उन दोनों रकअतों में (इज़ा ज़ुल-ज़िला-तिल अर्ज़ो) और (कुल या अय्योहल काफिरून) पढ़े।

स्रोत

अल्बानी की किताब “क़ियाम रमज़ान” से।

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