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यदि पत्नी गुज़ारा-भत्ता त्याग कर दे और वह बच्चे नहीं पैदा करना चाहती हो, तो क्या वह विवाह के अनुबंध का दस्तावेजीकरण किए बिना शादी कर सकती हैॽ

प्रश्न: 321678

मैंने प्रथागत विवाह (कानूनी शादी, कोर्ट मैरिज) के संबंध में वेबसाइट पर खोज की और पाया कि यदि उसमें शादी के स्तंभ (अरकान) अर्थात् अभिभावक, ईजाब व क़बूल (प्रस्ताव और स्वीकृति), दो न्यायप्रिय गवाह और महर  मौजूद है, और इससे पहले स्थायी विवाह का इरादा पाया जाता है, अस्थायी का नहीं, तो इस प्रकार कानूनी विवाह (प्रथागत विवाह) शरई रूप से सही (मान्य) होगा। लेकिन मैंने अन्य विद्वानों की यह बात पढ़ी है कि इस स्थिति में प्रथागत विवाह शरीयत की दृष्टि से सही होने के बावजूद हराम (निषिद्ध) होगा। क्योंकि यह पत्नी और बच्चों के अधिकारों का हनन करता है, यदि वे बाद में पाए जाते हैं। इसलिए मेरा सवाल है : क्या यह बात सही हैॽ तथा इसके बीच क्या अंतर है कि एक काम शरीयत की दृष्टि से सही (वैध) है, लेकिन उसी समय वह हराम (निषिद्ध) भी हैॽ दूसरा सवाल : यदि प्रथागत शादी पिछले दो कारणों से निषिद्ध है, तो इस स्थिति में क्या मामला होगा, यदि पत्नी ने अपना गुज़ारा-भत्ता अर्थात् खाना, पानी, कपड़ा और आवास के खर्च को त्याग कर दिया है, और वह केवल थोड़ा खर्च चाहती है, तथा वह विरासत (मृतकसंपत्ति) नहीं चाहती है, और इसी तरह वह बच्चा पैदा करने की इच्छा भी नहीं रखती है; क्योंकि उसके पास पिछले विवाह से एक बेटा और एक बेटी हैं, तो क्या इस परिस्थिति में हुक्म बदल जाएगा और प्रथागत विवाह शरई रूप से सही (वैध) हो जाएगा और उसमें निषेध का मिश्रण नहीं होगाॽ

उत्तर का पाठ

अल्लाह की हमद, और रसूल अल्लाह और उनके परिवार पर सलाम और बरकत हो।

विवाह में यदि उसकी शर्तें और उसके स्तंभ (अरकान), जैसे कि ईजाब व क़बूल (प्रस्ताव और स्वीकृति) और पति-पत्नी की सहमति पाई जाती है, और यह दो गवाहों की उपस्थिति में अभिभावक या उसके वकील द्वारा अनुबंधित किया गया है, तो यह एक सही (वैध) विवाह है, भले ही उसे प्रमाणित (पंजीकृत) न किया गया हो, और यह प्रथागत विवाह का एक रूप है।

हमारे समय में शादी का दस्तावेजीकरण (पंजीकरण) करना अनिवार्य है। ताकि पति, पत्नी और बच्चे सभी के अधिकारों को संरक्षित किया जा सके। यदि उसने उसे पंजीकृत नहीं किया है, तो इस कर्तव्य को छोड़ने के कारण वह हराम (निषिद्ध) होगा। अतः वह निकाह सही है, लेकिन वह व्यक्ति गुनाहगार होगा जिसने बिना दस्तावेजीकरण के विवाह किया है।

तो यह किसी चीज़ के वैध और निषिद्ध होने का मतलब है, जबकि बिना अभिभावक के शादी करने का मामला इसके विपरीत है, क्योंकि वह निषिद्ध है और वैध नहीं है।

अगर पत्नी को अपने अधिकारों की परवाह नहीं है और वह बच्चे पैदा करना नहीं चाहती है, तो यह दस्तावेज़ीकरण की अनिवार्यता को समाप्त नहीं करता है। क्योंकि वह कभी शादी का इनकार कर सकती है, तो इस तरह पति का अधिकार खो जाएगा। तथा उसकी मृत्यु हो सकती है, तो उसका पति उसकी विरासत पाने में सक्षम नहीं होगा और उसका हक़ बर्बाद हो जाएगा। तथा वह बच्चे जनने की अनिच्छा के बावजूद जन्म दे सकती है और उस समय पति उसका पंजीकरण करने में असमर्थ होगा। इस तरह बच्चे का अधिकार खो जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि वह एक अवधि के लिए उससे शादी करके अपने पास रखे और फिर उसे छोड़ दे, और उसको तलाक़ देने से इनकार कर दे। फिर वह बीच में लंबित रहेगी, न तो वह किसी और से शादी कर सकेगी और न उसपर मुक़दमा कर सकेगी।

अतः दस्तावेज़ीकरण के अनिवार्य होने का कथन स्पष्ट है और उसमें पाया जाने वाला हित बहुत बड़ा और स्पष्ट है, तथा उसे छोड़ने और नज़रअंदाज़ करने में पाई जाने वाली ख़राबियाँ व बुराइयाँ सर्वज्ञात और प्रसिद्ध हैं, विशेष रूप से इन समयों में जब इनकार, नकार और अधिकारों को बर्बाद करने का बाहुल्य है, खासकर जब कुछ व्यक्तिगत स्थिति कानूनों (पर्सनल ला) ने “न्यायिक अदालतों को वैवाहिक मुकदमे की तब तक सुनवाई न करने या स्वीकार न करने के लिए बाध्य किया है जब तक कि आधिकारिक दस्तावेज़ प्रस्तुत नहीं किया जाता है। और इसी पर मिस्र की न्यायपालिका 1931 से चली आ रही है, जैसा कि 1951 के कानून संख्या (78) द्वारा संशोधित शरई न्यायालयों की व्यवस्था रेगुलेशन के अनुच्छेद (99) में निर्धारित किया गया है… और इन्हीं कानूनों में से कुवैती व्यक्तिगत स्थिति कानून भी है। चुनाँचे उसके अनुच्छेद (92), पैरा : (ए)  में आया है : “इनकार करनी की स्थिति में वैवाहिक मुक़दमा नहीं सुना जाएगा, सिवाय इसके कि वह आधिकारिक विवाह प्रमाण-पत्र से साबित हो, या इनकार से पहले आधिकारिक दस्तावेजों में विवाह की स्वीकृति मौजूद हो।” उसामा उमर अल-अश्क़र की पुस्तक “मुस्तजिद्दात अल-फ़िक़्हिय्यह फी क़ज़ाया अज़-ज़वाज व अत्तलाक़” (पृष्ठ 145) से उद्धरण समाप्त हुआ।

पहले समय में, भ्रष्टाचार की कमी के कारण लोगों को इस दस्तावेज़ की आवश्यकता नहीं होती थी।

शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने कहा : सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम महर की राशियों को नहीं लिखते थे, क्योंकि वे विलंबित महर पर शादी नहीं करते थे, बल्कि वे त्वरित महर अदा करते थे। और अगर उन्होंने उसे विलंब कर दिया, तो वह अच्छी तरह से ज्ञात होता था। लेकिन जब लोग विलंबित महर पर शादी करने लगे, और उसकी अवधि लंबी होने लगी और उसे भुला दिया जाने लगा; तो वे विलंबित महर को लिखने लगे और वह महर को साबित करने के लिए तथा इस बात के लिए एक सबूत (प्रमाण) बन गया कि वह उसकी पत्नी है।” “मजमूओ फतावा शैखुल-इस्लाम” (32/131) से उद्धरण समाप्त हुआ।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत

साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर

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